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ए॒तꣳ स॑धस्थ॒ परि॑ ते ददामि॒ यमा॒वहा॑च्छेव॒धिं जा॒तवे॑दाः। अ॒न्वा॒ग॒न्ता य॒ज्ञप॑तिर्वो॒ऽअत्र॒ तꣳ स्म॑ जानीत पर॒मे व्यो॑मन् ॥५९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒तम्। स॒ध॒स्थेति॑ सधऽस्थ। परि॑। ते॒। द॒दा॒मि॒। यम्। आ॒वहादित्या॒ऽवहा॑त्। शे॒व॒धिमिति॑ शेव॒ऽधिम्। जा॒तवे॑दा॒ इति॑ जा॒तऽवे॑दाः। अ॒न्वा॒ग॒न्तेत्य॑नुऽआऽग॒न्ता। य॒ज्ञप॑ति॒रिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिः। वः॒। अत्र॑। तम्। स्म॒। जा॒नी॒त॒। प॒र॒मे। व्यो॑म॒न्निति॒ विऽओ॑मन् ॥५९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:59


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे ईश्वर के ज्ञान चाहनेवाले मनुष्यो ! और हे (सधस्थ) समान स्थानवाले सज्जन ! (जातवेदाः) जिसको ज्ञान प्राप्त है, वह वेदार्थ को जाननेवाला (यज्ञपतिः) यज्ञ की पालना करनेवाले के समान वर्त्तमान पुरुष (यम्) जिस (शेवधिम्) सुखनिधि परमेश्वर को (आवहात्) अच्छे प्रकार प्राप्त होवे, (एतम्) इसको (अत्र) इस (परमे) परम उत्तम (व्योमन्) आकाश में व्याप्त परमात्मा को मैं (ते) तेरे लिये जैसे (परि, ददामि) सब प्रकार से देता हूँ, उपदेश करता हूँ, (अन्वागन्ता) धर्म्म के अनुकूल चलनेहारा मैं (वः) तुम सबों के लिये जिस परमेश्वर का (स्म) उपदेश करूँ, (तम्) उसको तुम (जानीत) जानो ॥५९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य विद्वानों के अनुकूल आचरण करते हैं, वे सर्वव्यापी अन्तर्यामी परमेश्वर के पाने को योग्य होते हैं ॥५९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(एतम्) पूर्वोक्तम् (सधस्थ) समानस्थान (परि) सर्वतः (ते) तुभ्यम् (ददामि) (यम्) (आवहात्) समन्तात् प्राप्नुयात् (शेवधिम्) शेवं सुखं धीयते यस्मिँस्तं निधिम् (जातवेदाः) जातप्रज्ञो वेदार्थवित् (अन्वागन्ता) धर्ममन्वागच्छति (यज्ञपतिः) यज्ञस्य पालक इव वर्त्तमानः (वः) युष्मभ्यम् (अत्र) (तम्) (स्म) एव (जानीत) (परमे) प्रकृष्टे (व्योमन्) व्योम्न्याकाशे ॥५९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे ईश्वरं जिज्ञासवो मनुष्याः ! हे सधस्थ ! च जातवेदा यज्ञपतिर्ये शेवधिमावहादेतमत्र परमे व्योमन् व्याप्तं परमात्मानमहं ते तथा परिदादाम्यन्वागन्ताऽहं यं वो युष्मभ्यमुपदिशामि स्म, तं यूयं विजानीत ॥५९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या विद्वनुकूलमाचरन्ति, ते सर्वव्यापिनमन्तर्यामिणमीश्वरं प्राप्तुमर्हन्ति ॥५९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे विद्वानांच्या अनुकूल आचरण करतात ती सर्वव्यापी परमेश्वराला प्राप्त करण्यायोग्य बनतात.